Friday, September 7, 2007

AN OPEN LETTER TO THE POLICE CHIEF


विश्वरंजन जी को खुला पत्र
आदरणीय विश्वरंजन जी,

पिछले हफ्तों इस अखबार में कई किश्तों में छपा आपका लम्बा साक्षात्कार पढा । यह पढकर अच्छा लगा कि आप स्वयं उदाहरण प्रस्तुत कर पुलिस बल में सुधार लाना चाहते हैं । आपकी नक्सलवाद के बारे में समझ के बारे में पढकर और भी अच्छा लगा ।
इन्हीं सब कारणों से आज मैं यह पत्र लिखने का साहस कर पा रहा हूं जिसमें मैं छत्तीसगढ पुलिस से अपने कुछ अनुभवों के बारे में लिखना चाहूंगा ।
सबसे पहले जब मैं दंतेवाडा गया तो बीबीसी की हमारी टीम छत्तीसगढ आर्म्ड फोर्सेज़ के साथ कुछ समय बिताना चाहती थी । जॉन लोंगकुमेर जी उस समय बस्तर में पुलिस के प्रमुख थे । उन्होंने भांसी थाने में हमारे लिए एक विशेष दस्ता भेजा जिसका नेतृत्व एक डीएसपी कर रहे थे । उनमें से अधिकतर जवान मिज़ोरम के वारेंगटे के जंगल वारफेयर कॉलेज से प्रशिक्षित थे ।

उस दल में दिलीप नाम का एक लडका था, वह आदिवासी था । उसने मुझसे कहा “ये जो सामने पहाड देख रहे हो, ये सब नक्सलियों से भरे हैं । मुझे 7 साल का अनुभव है जब भी हम वहां जाते हैं पक्का उनसे मुकाबला होता है”।

मैंने पूछा “तुम्हारी उम्र कितनी है” । उसने बताया 21 । और तुम पुलिस में कब से काम कर रहे हो ? “पिछले 7 साल से” ।

ये कैसे हो सकता है? मुझे ताज्जुब हुआ । मैंने साथ चल रहे डीएसपी से पूछा तो उन्होंने कहा “दिलीप सही कह रहा है । छत्तीसगढ पुलिस में बाल पुलिस भर्ती करने का विशेष प्रावधान है” ।

मैंने कहा जो पुलिस कर्मचारी मारे जाते हैं उनके नाबालिग बेटे- बेटियों को पुलिस में भर्ती किया जाता है । इस कानून के बारे में तो मुझे पता है पर दिलीप के पिता तो पुलिस में नहीं थे ।

अपनी शूटिंग खत्म करने के बाद जब मैंने दिलीप से बात करना शुरु किया तो उसकी कहानी और भी रोचक थी ।

उसने बताया जब वह कक्षा पांचवीं में पढता था तब नक्सली उसे अपने साथ ले गये थे।
“मैं उनके साथ ही रहने लगा । मैं उन्हीं के साथ घूमता था, उनकी नाट्य मंडली में नाचता था । पर उनके साथ कुछ साल रहते समय मैंने देखा कि ये लोग पैसे को लेकर आपस में एक दूसरे को मारते हैं, आदिवासी लडकियों का बलात्कार करते हैं, मुझे उन से घिन हो गई । फिर एक दिन मैंने पुलिस में सरेण्डर कर दिया । पहले मुझे थोडे दिन बाल कारागृह में रखा गया उसके बाद से पिछले 7 साल से मैं पुलिस के विशेष नक्सल विरोधी दस्ते में काम करता हूं”!
वापस लौटकर मुझे कोई कानून नहीं मिला जिसकी डीएसपी साहब बात कर रहे थे ।

उसके बाद सरगुजा के सामरी थाने में मेरी धीरज जायसवाल से मुलाकात हुई । उसने बताया “मेरा पुलिस से कोई संबंध नहीं है पर मैं सामरी पुलिस थाने का प्रमुख हूं । मुझे पुलिस से कोई तनख्वाह नहीं मिलती, एसपी साहब जो उचित समझते हैं दे देते हैं और
यद्यपि मैं सबको अपनी उम्र 22 साल बताता हूं पर मेरी उम्र 18 है और मैं पिछले एक साल से इस थाने का प्रमुख हूं” ।

दिलीप की तरह वह भी पहले नक्सलियों के साथ था और अब उनसे घृणा करता है । “जब मैंने सरेण्डर किया तब मुझे पहले बाल बन्दी गृह में रखा गया पर थोडे दिन बाद से मैं नक्सलियों के खिलाफ होने वाले स्पेशल ऑपरेशन में शामिल होने लगा” ।
इन बच्चों की तरह आजकल छत्तीसगढ पुलिस ने बस्तर की आम जनता को नक्सलियों के खिलाफ युद्ध में झोंका हुआ है ।

मुझे यह पढकर आश्चर्य हुआ जो आप साक्षात्कार में कई बार कहते हैं “आप सलवा जुडुम की तरह का कोई भी उदाहरण दुनिया में मुझे दिखा दीजिये” ।

आप टीवी खोलिये बीबीसी पर रोज़ आपको सूडान की सिविल मिलिशिया जंजावीद की कोई ने कोई खबर मिल जाएगी जिसने दार्फूर में कहर बरपाया हुआ है । सूडान की सरकार भी इस बात से इंकार करती है कि जंजावीद के पीछे उनका कोई योगदान है।

पिच्हले एक महीने का अखबार उठाकर देखें तो संयुक्त राष्ट्र की विशेष अदालत ने सिएरा लिओन की सिविल मिलिशिया कामाजोर के 5 नेताओं को उन्ही सब अपराधों का दोषी पाकर उम्र कैद दिया है जिस तरह के आरोप आज सलवा जुडुम पर लग रहे हैं ।

याद करने बैठें तो पडोस के इंडोनेशिया के महीदी, कांगो के निंजास और पेरु के रोंडेरोस मिलिशिया के नाम तो तुरत याद आते हैं । वेनेज़ुएला में तो सिविल मिलिशिया में 20 लाख लोगों के शामिल होने का दावा किया जा रहा है । मेरे मित्र याद दिलाते हैं कि रवांडा के मायी मायी और कोलंबिया के रैचर्स को क्यों भूल जाते हो।

यद्यपि कोई भी दो घटनाएं बिल्कुल एक जैसी तो नहीं होतीं पर मुझे मैक्सिको की भी याद आती है जहां सरकार ने आदिवासियों को मारने के लिये कमांडेंट मार्कोस के नेतृत्व में शहरी लोगों की मिलिशिया बनाई थी । सेना सडकों की सुरक्षा करती थी और सलवा जुडुम की ही तरह मिलिशिया जंगल के अंदर जाकर गांव के गांव जलाती थी ।
सलवा जुडुम की ही तरह सिएरा लिओन में भी कुछ लोग कामाजोर को आदर्शवादी लडाकू मानते हैं । पर संयुक्त राष्ट्र की विशेष अदालत ने अपने फैसले में पिछले ही महीने कहा कि मानव अधिकारों के जघन्य हनन के अपराधियों को सज़ा तो मिलनी ही चाहिये चाहे उन्होंने वे अपराध किसी भी आदर्श के लिये किए हों ।
हां एक खास फर्क सलवा जुडुम और इन उदाहरणों में नज़र आता है वह यह कि बाकी सारे प्रयोग गैर लोकतंत्र वाले देशों में हुआ और इनमें से अधिकतर देशों में प्रेस आज़ाद नहीं था । और एक खास समानता कि इन सारी जगहों पर बस्तर की ही तरह जंगल और खनिज की बहुलता है ।

हर जगह यह बताया गया कि सिविल मिलिशिया को शुरु करना तो आसान है लेकिन बाद में उस पर काबू रखना मुश्किल होता है और वे अक्सर उस समस्या से भी बडी समस्या साबित होते हैं जिनसे लडने के लिये उन्हे खडा किया जाता है ।

जहां तक मुझे समझ में आया साक्षात्कार में आप यह कहना चाह रहे हैं कि नक्सलियों को सलवा जुडुम से तगडी चुनौती मिली है । आप कहते हैं कि नक्सली नेताओं ने कहा है कि सलवा जुडुम के कारण उनके 500 से अधिक लोग मारे गए हैं ।

पर उन्हीं नक्सली नेताओं ने यह बयान भी दिया है कि सलवा जुडुम के कारण पिछले दो सालों में इतने लोग उनके साथ जुडे हैं जितने पिछले 20 सालों में नहीं जुडे थे ।
हमारी समझ है कि जिन 644 गांवों के लोग सलवा जुडुम में “शामिल” हुए हैं उनकी आबादी लगभग 3.5 लाख है और सरकारी आंकडों के अनुसार यदि 50 ह्ज़ार लोग भी कैम्प में हैं तो इन दो सालों में बाकी 3 लाख लोग नक्सलियों के और करीब जाने को मज़बूर हुए हैं ।

मैं आंतरिक युद्ध विषय पर विशेषज्ञ नहीं हूं पर मुझ जैसे पत्रकारों को भी पता है कि सलवा जुडुम जैसे प्रयोगों को मिलिट्री की भाषा में स्ट्रैटेजिक हैमलेटिंग कहते हैं और ऐसे प्रयोग वियतनाम, मलेशिया, पेरु सहित भारत के उत्तर पूर्व में भी किए जा चुके हैं, भारी असफलता के साथ ।

इसके बाद अब छत्तीसगढ पुलिस “4 कट स्ट्रैटेजी” की तरफ बढ रही है । इस रणनीति के तहत यह निश्चित किया जाता है कि गुरिल्ला को 4 चीज़ें : भोजन, धन, भर्ती के लिये नए लोग और सूचना की सप्लाई काट दी जाए । पडोसी बर्मा की सेना इसी रणनीति का उपयोग करती है ।

पर यदि आप सलवा जुडुम के शुरु होने के सरकारी कारणों पर नज़र डालें तो आप पाएंगे कि कहा जाता रहा है कि नक्सलियों ने तेंदू पत्ता तोडने पर रोक लगाई इसलिये लोगों ने सलवा जुडुम शुरु किया । और अगर अखबारों में छप रही खबरें सही हैं तो छत्तीसगढ में भी नई रणनीति के तहत अब तेंदूपत्ता व्यापार का सरकारीकरण कर उसी तरह की कोशिश की जा रही है ।

80 और 90 के दशक में तेंदूपत्ता व्यापारी नक्सलियों के धन के मुख्य स्रोत हुआ करते थे । पर अब जब बस्तर का “विकास” हो गया है और नक्सलियों को करोडों में चन्दा देने वाले लोग मौजूद हैं तब हज़ार रू का चन्दा रोकने से उनका क्या बिगडेगा समझ में नहीं आता ।
छत्तीसगढ पुलिस लगातार ऐसी नीतियों पर चलती नज़र आती है जिससे नक्सली को कोई नुकसान हो या न हो पर लोगों की तकलीफें ज़रूर बढी है । अपने दुश्मनों की तादाद बढाते चलना कौन सी रणनीति का हिस्सा है समझ में नहीं आया ।
आशा है आपके नेतृत्व में ये नीतियां बदलेंगी ।

आपका
शुभ्रांशु चौधरी
shu@cgnet.in

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